शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 54 [बह्र-ए-सरीअ’]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 54 [बह्र-ए-सरीअ’]

[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]

उर्दू शायरी के 19-प्रचलित बह्रों में ,बह्र-ए-सरीअ’ भी एक बह्र है पर यह बह्र शायरी में ज़्यादा प्रयोग हुई नहीं ,पर बातचीत करने में कोई हर्ज भी नहीं।
यह एक मुरक़्क़ब बह्र [ मिश्रित बह्र] है जो दो अर्कान से मिल कर बनता है

इसकी बुनियादी अर्कान है 
मुस तफ़ इलुन----मुसतफ़इलुन--मफ़ऊलातु
2 2 1 2 ----------2 2 1 2------2221 
  a-------------a---------------b
यह बह्र  साधारणतया अपने ’मुसद्दस शकल’ में ही प्रयोग होती है     a--a--b
यदि आप इसे ’मुसम्मन शकल’ में प्रयोग करना चाहें तो इसकी शकल होगी।
मुसतफ़ इलुन---मफ़ऊलातु----मुसतफ़इलुन---मफ़ऊलात 
2212----------2221---------2212----------2221
यानी a-----------b-------------a--------------b'
मफ़ऊलातु [2221] और मफ़ऊलात्  [2221] में फ़र्क़ समझ लें

मफ़ऊलातु [2221] में -तु- मुतहर्रिक है जिसका वज़न -1- है और जो  शे’र के हस्व के मुक़ाम पर लाया जा सकता है -मनाही नहीं है । मगर अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर नहीं लाया जा सकता।
मफ़ऊलात् [ 2221]  में त्- साकिन है जिसका भी वज़न  -1- है और जो शे’र के ’अरूज़/ज़र्ब’ के मुक़ाम पर लाया जा सकता है कारण कि शे’र [मिसरा] का हर्फ़ अल आख़िर ’साकिन’ होता है--
confusion  न हो , आप चाहें तो ’मफ़ऊलात्’ [2221] को इसके हम वज़न शकल ’ मफ़ऊलान’ 2221 से बदल सकते हैं जिसमे -न- [नून अलानिया ] साकिन है
यही कारण है कि ’मफ़ऊलातु [[2221] सालिम रुक्न होते हुए भी -सालिम बह्र में प्रयोग नहीं होता ,हमेशा इसका ’मुज़ाहिफ़’ शकल ही प्रयोग होता है इसी कारण ऊपर मैने -b-के बजाय  -b'- लिखा कि स्पष्टता बनी रहे
बज़ाहिर इन दो अर्कान पे वही ज़िहाफ़ लगते है जो मुसतफ़ इलुन [2212] और मफ़ऊलातु [2221] पर लगते है जैसे वक़्फ़----कस्फ़--तय्यी--नह्र--जदअ’--- वग़ैरह
अब इन पर लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ात की चर्चा भी कर लेते है
मफ़ऊलातु [2221] पर लगने वाले ज़िहाफ़ात:-
्मफ़ऊलातु [2221] +वक़्फ़        = मौक़ूफ़  मफ़ऊलान [2221]  
्मफ़ऊलातु [2221]  +कस्फ़    = मक्सूफ़   मफ़ऊलुन   [2 2 2 ]
मफ़ऊलातु   [2 2 2 1 ] +तय्यी         = मतूवी      फ़ा इलान  [ 21 2 1]
मफ़ऊलातु [2 2 2 1 ] +तय्यी+कस्फ़= मतूवी मक्सूफ़ फ़ाइलुन [ 212]
मफ़ऊलातु [2 2 2 1 ] + नह्र           = मन्हूर   फ़े [2] 
मफ़ऊलातु [ 2 2 2 1] + जदअ’+ वक़्फ़ = मज्दूअ’ मौक़ूफ़ = फ़ाअ’[21]

मुसतफ़ इलुन [2212] पर लगने वाले ज़िहाफ़ात :-
मुस तफ़ इलुन [2 2 1 2] +तय्यी    = मतूवी मुफ़ त इलुन [ 2112]

ध्यान दें --ज़िहाफ़ ’तय्यी’ दोनो ही रुक्न पर लग सकता है और मुज़ाहिफ़ ’मतूवी’ बरामद हो सकती है
[नोट -लातु- यहाँ ’वतद-ए-मफ़रूक़ है यानी ’हरकत+साकिन+ हरकत [लाम+अलिफ़+ते]  और  ज़िहाफ़ ’वक़्फ़’ - आखिरी हर्फ़ -ते- जो अभी मुतहर्रिक है को साकिन कर देता है यानी -लातु- [21], को ’ लात’ कर देता है[ मुतहर्रिक+साकिन+साकिन] में बदल जाता है और यही मौक़ूफ़ है ] जिसे अपनी सुविधा के लिए इसे हमवज़न ’मफ़ऊलान’ [2221] से बदल लेते है। यह ज़िहाफ़ ख़ास इसी रुक्न के लिए ही बना है  । "ततपश्चात " और ’ततपश्चात्  में क्या फ़र्क़ है ? सही पकड़ा-- हर्फ़ अल आखिर -त- पर हलन्त है । यही फ़र्क है --’मफ़ऊलात ’ और मफ़ऊलात् -में

अब कुछ प्रचलित बह्र की चर्चा कर लेते है
[1] बह्र-ए-सरीअ’ मुसम्मन  मौक़ूफ़ अलाअखिर 
   मुसतफ़ इलुन---मफ़ऊलातु----मुसतफ़इलुन---मफ़ऊलान \ मफ़ऊलुन
    2212----------2221---------2212----------2221       \ 222
कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब ने यह स्वीकार किया है  कि यह बह्र [मुसम्मन शकल ] ,Technically मुमकिन तो है मगर इस्तेमाल में नहीं है मगर तबअ’ आज्माई करने में हरज क्या है
एक उदाहरण देखते है --उन्हीं के हवाले से

मन्ज़र न था कोई तो ये कैसे बनाया सहकार
जो हो ,मुसव्विर मालूम, इस बात का कर इज़हार

इसकी तक़्तीअ’ कर के देखते हैं
2      2  1  2   /   2 2 2 1  / 2 2 1 2  /  2  2  2 1
मन ज़र न था / कोई तो ये / कैसे बना / या सह कार
2     2  1  2   / 2     2  2 1 /  2   2  1 2   / 2    2  2 1
जो हो ,मु सव्/ विर मा लूम,/  इस बात का / कर इज़ हार
एक बात और --मफ़ऊलान [2221] की जगह ’मफ़ऊलुन [ 2 2 2] भी लाया जा सकता है

एक बात ध्यान दीजियेगा --" कोई तो ये ’ -मफ़ऊलातु [2221] है । कारण कि -ये- मुतहर्रिक है यहाँ जब कि ’सहकार’ मे -रे- साकिन है और हर्फ़ उल आख़िर भी है मिसरा का--रवा है।
जब कि "या सहकार ’    -मफ़ऊलात् [ यानी मफ़ऊलान् ] 2221 है  जब् कि दोनो को 2221 से ही दिखाया गया है
इसीलिए मैं कहता हूँ कि ये 2212--2122 --2221--जैसे  गिर्दान से बेहतर है कि हम सब ’रुक्न ’ के नाम का प्रयोग करें बह्र लिखने में --कि पता चले कि हम  मुतहर्रिक [1] की बात कर रहे हैं कि ’साकिन’[1] की
उर्दू शायरी इस मामले में बड़ी particular है।
 क्लासिकल अरूज़ी में यह बह्र ’मुसद्दस शकल’ में ही मुस्तमिल है  मगर कम ही हैं
[2] बह्र-ए-सरीअ’ मुसद्दस मौकूफ़ /मकसूफ़
मुसतफ़ इलुन---मुसतफ़ इलुन----मफ़ऊलान\ मफ़ऊलुन
2  2  1   2   -----2 2 1   2  ------2 2 2 1    \ 2 2 2 
डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के ही हवाले से

 फ़ुरक़त में तेरी मैं तड़पता हूँ यार
अब आ भी जा आँखों में दम है मेरा 

 तक़्तीअ भी कर के देख लेते हैं
   2  2     1  2 / 2 2  1 2    / 2 2 2  1
फ़ुर क़त में ते /री मैं त ड़प / ता हूँ या र
   2    2   1  2   /  2  2  1  2  / 2 2 2
अब आ भी जा/  आँखों में दम/ है मेरा

[3] बह्र-ए-सरीअ’ मुसद्दस मतूवी मौकूफ़
मुफ़ त इलुन---मुफ़ त इलुन-- फ़ाइलान-\ -फ़ाइलुन
2  1   1  2-------2  1  1 2---2 1 2 1  \ 2 1 2

एक उदाहरण देखते हैं
नसीम लख़नवी साहब का एक शे’र है

आप के वादों को हमारा सलाम
देख चुके ख़ूब ,अजी जाओ भी

अब तक़्तीअ’ कर के देखते हैं

2  1   1  2  /  2  1 1  2   / 2 1 2 1
आप के वा / दों को हमा / रा सलाम
2  1  1 2   /   2 1  1 2   /  2 1 2
देख चुके    / ख़ूब ,अजी  /जाओ भी

-जाओ भी - को -जा व बी  [ फ़ा इ लुन  के वज़न पर लिया गया है। कारण ? आप बताए। जी  सही--बह्र की माँग है यहाँ।

इसी बह्र और इसी वज़्न पर शेफ़्ता देहलवी साहब का एक शे’र देखें

ग़ैर भी क्यों तुझ से निबाहेंगे , गर
बज़्म-ए-वफ़ा क़ाबिल-ए-ताज़ीर है

तक़्तीअ’ आप कर के देख लें

[4] बह्र-ए-सरीअ’ मतूवी मन्हूर\ मज्दूअ’ मौक़ूफ़
मुफ़ त इलुन----मुफ़ त इलुन---फ़े\फ़ाअ’
2112-----------2112--------2-\21
डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से

तू मुझे चाहे कि न चा ’हे
मैने तुझे प्यार किया है

तक़्तीअ भी देख लेते हैं-आसान है
2  1 1  2  / 2 1 1  2    / 2
तू मुझे चा /हे कि न चा  / हे
2 1  1 2  /  2 1 1  2   /2
मैने तुझे   / प्यार किया/  है

एक बात  मिसरा उला मे ’मुझे’ तो  1 1 के वज़न पर लिया
और मिसरा  सानी  मे ’तुझे’ को    1 2  के वज़न पर लिया है
क्यों? आप बताएँ। कारण वही---जो ऊपर बताया है।
चलिए मज्दूअ’ मौक़ूफ़ का भी एक शे’र देख लेते हैं

झूम उठेंगे दर-ओ-दीवार
आएगा महबूब मेरा  आज

तक़्तीअ’ आप कर के देख लें

इस क़िस्त में बह्र-ए-सरीअ’ का बयान ख़त्म हुआ । 1-2 बह्र और भी बनाई जा सकती है --मगर ज़रूरत नहीं है यहाँ

अगली क़िस्त में किसी और नई बह्र पर बातचीत करेंगे
अस्तु

{क्षमा याचना -वही जो पिछले क़िस्त में है}-इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

-आनन्द.पाठक-

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