उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 55 [बह्र-ए-जदीद]
[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]
पिछली क़िस्त में ’बह्र-ए-सरीअ’ पर बातचीत की थी ,आज हम बह्र-ए-जदीद पर बात करेंगे
उर्दू शायरी की प्रचलित 19- बह्रों में से एक बहर यह भी है बह्र-ए-सरीअ’ की तरह यह भी एक ’मुरक़्क़्ब बह्र [ मिश्रितबह्र] है जो 3-अर्कान से मिल कर बना है परन्तु यह भी बह्र-ए-सरीअ’ की तरह लोकप्रिय और दिलकश नहीं है। शायरों ने इस बह्र में बहुत कम शायरी की है शायद एक कारण यह भी हो कि इसका आहंग मौसकी [संगीत] पर सही न उतरता हो --लयपूर्ण न हो।परन्तु चर्चा करने में क्या हरज है
ख़ैर-- इसके अर्कान समझ लेते हैं
बह्र-ए-जदीद का बुनियादी अर्कान है :-
फ़ाइलातुन-----फ़ाइलातुन----मुस तफ़अ’ लुन
2122----------2122---------2212
यह बह्र भी सिर्फ़ ’मुसद्दस शकल’ में ही इस्तेमाल होती है
ध्यान दीजियेगा---’मुसतफ़ इलुन’ 2212--अपने ’मुन्फ़सिल शकल में है [यानी सबब+ वतद-ए-मफ़रुक़+सबब] -यानी इस वतद पर वही ज़िहाफ़ा लगेंगे जो [वतद-ए-मफ़रूक] पर लगते है । इस बात की चर्चा मै किसी पिछली क़िस्त मे कर चुका हूँ
चलिए अब इस बह्र के कुछ आहंग की चर्चा कर लेते है
[1] बह्र-ए-जदीद मुसद्द्स सालिम
फ़ाइलातुन-----फ़ाइलातुन----मुस तफ़अ’ लुन/ मुसतफ़ इलान
2122----------2122---------2212 / 2 2 1 2 1
इस बह्र में कुछ उदाहरण देख लेते हैं :-जनाब सरवर साहब के हवाले से
ले गया वो बेमुरव्वत आराम-ए-दिल
कुछ नहीं बाक़ी रहा अब जुज़ नाम-ए-दिल
[नामालूम]
तक़्तीअ तो आसान है -आप भी कर सकते है} चलिए कर के देख लेते हैं
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 2 1 2
ले गया वो / बे मु रव वत /आराम-ए-दिल
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 2 1 2
कुछ नहीं बा /क़ी रहा अब /जुज़ नाम-ए-दिल
यहाँ -ए- [ इज़ाफ़त-ए-क़स्रा] का वज़न नहीं लिया -कारण कि ज़रूरत नहीं थी -न ही बह्र की माँग दी। अगर बह्र माँग होती तो ज़रूर लेता
[2] बह्र-ए-जदीद मुसद्दस मख़्बून/ मस्बीग़
फ़ इलातुन---फ़ इलातुन--मफ़ा इलुन / मफ़ा इलान [ -ऐन- यहाँ ’मुतहर्रिक’ है]
1122----------1122------1212 /1 2 1 2 1
ज़िहाफ़ ’ख़ब्न’ [मुज़ाहिफ़ मख़्बून] के बारे में थोड़ा सा चर्चा कर लेते है। यह ज़िहाफ़ काफी चर्चा में रहता है ’ख़ब्न ] का शाब्दिक अर्थ होता है--चादर लपेटना--जैसे बदन पर शाल/चादर को एक फ़ेरा फेंक कर कंधे पर डाल लेते है /लपेट लेते है
" अगर रुक्न ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से शुरु होता है तो ज़िहाफ़ ’ख़ब्न’-’दूसरे हर्फ़’ को गिरा देता है यानी ’साकित’ कर देता है । यह ज़िहाफ़ --रमल [फ़ाइ लातुन-2122]-----रजज़ [मुस तफ़ इलुन 2212]---मफ़ऊलातु [2221]--फ़ाइलुन [212] पर लगेगा
क्योंकि यह सभी रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ --फ़ा--मुस---मफ़--- [पहला हर्फ़ मय हरकत और दूसरा हर मय साकिन यानी हरकत+साकिन] है --से शुरु होते हैं ।अत: यह ज़िहाफ़ दूसरे हर्फ़ ’साकिन’ को "उड़ा’देगा तो बचेगा सिर्फ़ ’मुतहर्रिक [1] फ़े--मीम--]
यह एक ’आम ज़िहाफ़’ है--आम ज़िहाफ़ वो ज़िहाफ़ होते हैं जो मिसरा/शे’र के हर मुक़ाम पर लग सकते है
फ़ाइलातुन [2122] के -फ़ा[2]- का अलिफ़ गिरा दिया तो बचा फ़े [1] मुतहर्रिक । तो फ़ाइलातुन [2122] का मख़्बून हो गया --फ़ इलातुन [1 1 2 2 ]
मुस तफ़अ’ लुन [ 2 2 1 2] के -मुस- का दूसरा हर्फ़ -स- [साकिन] है को गिरा दिया तो बचा सिर्फ़ -मु- [ 1] मुतहर्रिक । तो मुस तफ़ इलुन[2212] का मख़्बून हो गया ’मु तफ़ इलुन [1212] जिसे हमवज़न रुक्न ’ मु फ़ा इलुन [1212] से बदल लेते हैं
अच्छा ,अब इस बह्र में कुछ उदाहरण देख लेते हैं
सैय्यद इन्शा साहब का एक शे’र है
जो कभी एक घड़ी हाँ भी हो गई
तो रही फिर वही ,दो दो पहर नहीं
चलिए तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 2 1 2
जो कभी ए /क घड़ी हाँ/ भी हो गई
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 2 1 2
तो र ही फिर/ वही ,दो दो /पहर नहीं
-मिसरा उला में -एक- को- इक- कर दें तो क्या होगा? आप बताएँ?
मानी तो वही रहेगा --बह्र ख़ारिज़ हो जायेगी । क्यों?
इस बह्र में कोई ख़ास चर्चा की जगह थी नहीं । अत: इसका बयान यहीं ख़त्म हुआ
अब अगले क़िस्त में किसी और बह्र की चर्चा करेंगे
अस्तु
{क्षमा याचना -वही जो पिछले क़िस्त में है}-इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
-आनन्द
[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]
पिछली क़िस्त में ’बह्र-ए-सरीअ’ पर बातचीत की थी ,आज हम बह्र-ए-जदीद पर बात करेंगे
उर्दू शायरी की प्रचलित 19- बह्रों में से एक बहर यह भी है बह्र-ए-सरीअ’ की तरह यह भी एक ’मुरक़्क़्ब बह्र [ मिश्रितबह्र] है जो 3-अर्कान से मिल कर बना है परन्तु यह भी बह्र-ए-सरीअ’ की तरह लोकप्रिय और दिलकश नहीं है। शायरों ने इस बह्र में बहुत कम शायरी की है शायद एक कारण यह भी हो कि इसका आहंग मौसकी [संगीत] पर सही न उतरता हो --लयपूर्ण न हो।परन्तु चर्चा करने में क्या हरज है
ख़ैर-- इसके अर्कान समझ लेते हैं
बह्र-ए-जदीद का बुनियादी अर्कान है :-
फ़ाइलातुन-----फ़ाइलातुन----मुस तफ़अ’ लुन
2122----------2122---------2212
यह बह्र भी सिर्फ़ ’मुसद्दस शकल’ में ही इस्तेमाल होती है
ध्यान दीजियेगा---’मुसतफ़ इलुन’ 2212--अपने ’मुन्फ़सिल शकल में है [यानी सबब+ वतद-ए-मफ़रुक़+सबब] -यानी इस वतद पर वही ज़िहाफ़ा लगेंगे जो [वतद-ए-मफ़रूक] पर लगते है । इस बात की चर्चा मै किसी पिछली क़िस्त मे कर चुका हूँ
चलिए अब इस बह्र के कुछ आहंग की चर्चा कर लेते है
[1] बह्र-ए-जदीद मुसद्द्स सालिम
फ़ाइलातुन-----फ़ाइलातुन----मुस तफ़अ’ लुन/ मुसतफ़ इलान
2122----------2122---------2212 / 2 2 1 2 1
इस बह्र में कुछ उदाहरण देख लेते हैं :-जनाब सरवर साहब के हवाले से
ले गया वो बेमुरव्वत आराम-ए-दिल
कुछ नहीं बाक़ी रहा अब जुज़ नाम-ए-दिल
[नामालूम]
तक़्तीअ तो आसान है -आप भी कर सकते है} चलिए कर के देख लेते हैं
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 2 1 2
ले गया वो / बे मु रव वत /आराम-ए-दिल
2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 2 1 2
कुछ नहीं बा /क़ी रहा अब /जुज़ नाम-ए-दिल
यहाँ -ए- [ इज़ाफ़त-ए-क़स्रा] का वज़न नहीं लिया -कारण कि ज़रूरत नहीं थी -न ही बह्र की माँग दी। अगर बह्र माँग होती तो ज़रूर लेता
[2] बह्र-ए-जदीद मुसद्दस मख़्बून/ मस्बीग़
फ़ इलातुन---फ़ इलातुन--मफ़ा इलुन / मफ़ा इलान [ -ऐन- यहाँ ’मुतहर्रिक’ है]
1122----------1122------1212 /1 2 1 2 1
ज़िहाफ़ ’ख़ब्न’ [मुज़ाहिफ़ मख़्बून] के बारे में थोड़ा सा चर्चा कर लेते है। यह ज़िहाफ़ काफी चर्चा में रहता है ’ख़ब्न ] का शाब्दिक अर्थ होता है--चादर लपेटना--जैसे बदन पर शाल/चादर को एक फ़ेरा फेंक कर कंधे पर डाल लेते है /लपेट लेते है
" अगर रुक्न ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से शुरु होता है तो ज़िहाफ़ ’ख़ब्न’-’दूसरे हर्फ़’ को गिरा देता है यानी ’साकित’ कर देता है । यह ज़िहाफ़ --रमल [फ़ाइ लातुन-2122]-----रजज़ [मुस तफ़ इलुन 2212]---मफ़ऊलातु [2221]--फ़ाइलुन [212] पर लगेगा
क्योंकि यह सभी रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ --फ़ा--मुस---मफ़--- [पहला हर्फ़ मय हरकत और दूसरा हर मय साकिन यानी हरकत+साकिन] है --से शुरु होते हैं ।अत: यह ज़िहाफ़ दूसरे हर्फ़ ’साकिन’ को "उड़ा’देगा तो बचेगा सिर्फ़ ’मुतहर्रिक [1] फ़े--मीम--]
यह एक ’आम ज़िहाफ़’ है--आम ज़िहाफ़ वो ज़िहाफ़ होते हैं जो मिसरा/शे’र के हर मुक़ाम पर लग सकते है
फ़ाइलातुन [2122] के -फ़ा[2]- का अलिफ़ गिरा दिया तो बचा फ़े [1] मुतहर्रिक । तो फ़ाइलातुन [2122] का मख़्बून हो गया --फ़ इलातुन [1 1 2 2 ]
मुस तफ़अ’ लुन [ 2 2 1 2] के -मुस- का दूसरा हर्फ़ -स- [साकिन] है को गिरा दिया तो बचा सिर्फ़ -मु- [ 1] मुतहर्रिक । तो मुस तफ़ इलुन[2212] का मख़्बून हो गया ’मु तफ़ इलुन [1212] जिसे हमवज़न रुक्न ’ मु फ़ा इलुन [1212] से बदल लेते हैं
अच्छा ,अब इस बह्र में कुछ उदाहरण देख लेते हैं
सैय्यद इन्शा साहब का एक शे’र है
जो कभी एक घड़ी हाँ भी हो गई
तो रही फिर वही ,दो दो पहर नहीं
चलिए तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 2 1 2
जो कभी ए /क घड़ी हाँ/ भी हो गई
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 2 1 2
तो र ही फिर/ वही ,दो दो /पहर नहीं
-मिसरा उला में -एक- को- इक- कर दें तो क्या होगा? आप बताएँ?
मानी तो वही रहेगा --बह्र ख़ारिज़ हो जायेगी । क्यों?
इस बह्र में कोई ख़ास चर्चा की जगह थी नहीं । अत: इसका बयान यहीं ख़त्म हुआ
अब अगले क़िस्त में किसी और बह्र की चर्चा करेंगे
अस्तु
{क्षमा याचना -वही जो पिछले क़िस्त में है}-इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
-आनन्द
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें