शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

मज़मून : शायरी में ’ज़म(खोट) का पहलू’-----------कड़ी २

शायरी में ’ज़म(खोट) का पहलू’-----------कड़ी २
---सरवर आलम राज़ ’सरवर’(नोट : स्रोत -यह लेख इन्टरनेट साईट "उर्दू अन्ज़ुमन.काम से लिया गया है।जो उर्दू स्क्रिप्ट में लिखा हुआ है इसके मूल लेखक जनाब ’सरवर आलम राज़ ’सरवर’ साहिब है । यहाँ पर मैने हिंदीदाँ दोस्तों की सहूलियत के लिए सिर्फ़ हिंदी में नक़्ल-ए-तहरीर (ट्रान्सलिट्रेशन) किया है।) -आनन्द.पाठक
[इस मज़्मून की कड़ी -१ इसी ब्लाग पर दर्ज-ए-ज़ैल है.(नीचे दर्ज है)...............]

लुग़त (शब्दकोश) में ’ज़म’ के मानी ’मलामत’मज़्ज़मत.निंदामत,बुराई करने में है.शायरी में ’ज़म’ का पहलू ऐसी सूरत या नशिस्त या अल्फ़ाज़ की बन्दिश की वजह से पैदा होता है जो किसी वजह से क़ाबिले ऐतिराज़ (आपत्ति करने योग्य) समझी जा सके.कभी-कभी कोई शायर दानिस्ता (जान बूझ कर) भी ऐसी सूरत अख़्तियार करता है लेकिन फिर इसकी उस इरादी ग़लतनोशी का कोई जवाज़ (औचित्य) नहीं रह जाता है.और शे’र के साथ शायर को भी मा’तूब (कोप भाजन) क़रार देना ऐन इक़्तजाए इन्साफ़ (मौक़े पर इन्साफ़ वक़्त की ज़रूरत ) होता है.
ऐसे शे’र जिसमें ’ज़म का पहलू’ दर (बीच) में आता है आम तौर पर साफ़ सुथरे बेदाग़ नज़र आते हैं और फ़िल हक़ीक़त शायर का मुद्दआ यह होता भी नहीं है कि उनमें इरादतन ’ज़म का पहलू’ रखा जाए.यह ऐब तक़रीबन हमेशा ही बिल्कुल गै़र इरादी तौर पर सादिर(चलन में ) होता है और शायर इस जिम्न में मुत्तलिक़ मासूम और बेगुनाह हुआ करता है.चूँकि ’शे’र में ’ज़म का पहलू" ऐसी जगह ढूढ निकालने के लिए जहाँ एक आम ज़ेहन की रसाई (पहुँच) न हो एक ख़ास क़िस्म के दिमाग़ और ज़ेहन की ज़रूरत होती है.(आप इसको कज फ़हमी या कज दिमाग़ी कह सकते हैं) जो हर एक को फ़ितरत फ़ैयाज़ की तरफ़ से बदी’अत नहीं होता है.इस लिए शायर को खु़द भी इल्म नहीं होता कि इसके किसी शे’र में "ज़म का पहलू" मौजूद है.ज़ाहिर है कि अगर उसको ऐसे ऐब का एहसास हो जाए तो वह इसका इर्तिकाब(बुरे काम) की शुरुआत हर्गिज़ कहीं करेगा.
जैसे कि मैनें ऊपर अर्ज़ किया बाज़ औक़ात शायर अपने किसी मुख़ालिफ़ (विरोधी) शायर की तौहीन करने की गरज़ से इरादतन ’ज़म का पहलू’ अख़्तियार करता है और चूँकि यह फ़ेल अख़्तियारी (बुरे कर्म को अपनाना) होता है इस लिए बहुत ज़ाहिर भी होता है और लायक़-ए-निदामत (निन्दनीय) भी.ऐसा शे’र ’जम के पहलू’ के बजाय ’फक्कड़’ या लाग़्वा-गोयी (बकवास) के तहत किया जाना चाहिए.मैं ऐसी इरादी हरकत को एक मिसाल से वाजे़ह (स्पष्ट) करता हूँ

(१) मिसाल -१
आप लोगों में से कुछ लोग जरूर वाक़िफ़ होंगे कि दिल्ली के मशहूर उस्ताद शायर शाह मुबारक "आबरू" की एक आँख बेकार थी और इसमें ’फ़ुल्ला’ (आँख का एक दोष) पड़ा हुआ था.शाह साहब की मिर्ज़ा जान जानाँ ’मज़हर’ से मुख़ासमत (आपस में द्वेष भाव) थी और दोनो की शायराना चश्म्कीं (नोंक-झोंक)ज़माने भर में मशहूर थी."आबरू’ की कानी आँख का निशाना बना कर मिर्ज़ा जान जानाँ ने एक शे’र कहा जिसका पहला मिस्रा लिखता हूँ दूसरे मिस्रे से आप वाक़िफ़ ही होंगे
’आबरू की आँख में इक गाँठ है’
यह शे’र यकी़नन मिर्ज़ा साहिब जैसे कामिल फ़न शायर और दिल्ली तह्ज़ीब के एक नामलेवा को हरगिज़ ज़ेब (शोभा) नही देता था लेकिन वह अपने किसी बहुत ही कमज़ोर लमहे में ब-हर-कैफ़ यह शे’र कह गये होंगे.ज़ाहिर है कि इससे शाह ’आबरू’ साहब की काफी जग-हँसाई हुई क्योंकि ऐसी बातों से लुत्फ़ लेने वाले तो हर ज़माने में रहे हैं लेकिन शाह आलम कब चूकने वाले थे !उन्होने भी पलट कर मिर्ज़ा जान जाना ’मज़हर’ की तारीफ़ में इसी का़बिल का एक शे’र कह दिया जो यक़ीनन आप ने सुना होगा
क्या करूँ रब के किए को ,कोर मिरी चश्म है (कोर=अन्धा)
’आबरू जग में रहे तो जान जाना पश्म है
इन दोनो बुज़र्गों के अश’आर में ’ज़म का पहलू’ है और वह ढँका-छुपा नही है बल्कि बहुत ही वाज़ेह (साफ़) है क्यों कि यह अश’आर दोनों शायरों ने इरादतन एक दूसरे को ज़क ( अपमान) पहुँचाने की ग़रज़ से और तौहीन -ओ-तज़हीक (अपमान और हँसी उड़ाने) की नियत से कहे हैं .इस वाक़या का ज़िक्र मौलाना मुहम्मद हुसेन आज़ाद ने अपने किताब’ ’आबे-हयात’में तफ़्सील (विस्तार ) से किया है,यक़ीनन ऐसे बड़े शायरों को इतने गिरे हुए शे’र कहना (और वह भी अपने दिल की भड़ास निकालने केलिए) उन्हें किसी सूरत में ज़ेब (शोभा) नहीं देता. यह सोच कर ही इस दिल को समझाना पड़ता है कि ये बुज़ुर्ग भी आख़िर इन्सान ही थे और इन्सान ख़ता का पुतला है.अपने किसी कमज़ोर लम्हे में इनसे ऐसे शे’र सर-ज़द (सबके सामने) हो गये होंगे.यूँ भी हमारे यहाँ कहते हैं कि ’खता-ए-बुज़ुर्गां गिरिफ़्तां ख़ता अस्त’-( बुज़ुर्गो की ख़ता पर अंगुश्तनुमाई ( उँगली उठाना) ख़ुद एक ख़ता है)
-----------(अभी जारी है).......----

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