गुरुवार, 8 मार्च 2012

ग़ज़ल 035 : जिस क़दर शिकवे थे....

ग़ज़ल 035

जिस क़दर शिकवे थे सब हर्फ़-ए-दुआ होने लगे

हम किसी की आरज़ू में क्या से क्या होने लगे



बेकसी ने बे-ज़बानी को ज़बां क्या बख़्श दी

जो न कह सकते थे अश्कों से अदा होने लगे



हम ज़माने की सुख़न-फ़हमी का शिकवा क्या करें?

जब ज़रा सी बात पर तुम भी ख़फ़ा होने लगे



रंग-ए-महफ़िल देख कर दुनिया ने नज़रें फेर लीं

आशना जितने भी थे ना-आशना होने लगे



हर क़दम पर मंज़िलें कतरा के दूर होने लगीं

राज़हाये ज़िन्दगी यूँ हम पे वा होने लगे



सर-बुरीदा ,ख़स्ता-सामां ,दिल-शिकस्ता,जां-ब-लब

आशिक़ी में सुर्ख़रू नाम-ए-ख़ुदा होने लगे



आगही ने जब दिखाई राह-ए-इर्फ़ान-ए-हबीब

बुत थे जितने दिल में सब कि़ब्ला-नुमा होने लगे



आशिक़ी की ख़ैर हो "सरवर" कि अब इस शहर में

वक़्त वो आया है बन्दे भी ख़ुदा होने लगे !



-सरवर

सुर्खरू -कामयाब

आगही =जानकारी

क़िब्ला नुमा =आदरणीय

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया प्रस्तुति!
    घूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच
    लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  2. बढ़िया ग़ज़ल .हर शैर खूबसूरत .मायने देकर लफ्जों के आपने इन्हें और भी बोधगम्य और मौजू बना दिया है .

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  3. सभी अशार उम्दा... शानदार ग़ज़ल...
    सादर बधाई.

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  4. आ0 शास्त्री जी/वीरु भाई/जनाब हबीब साहब/वीनस जी
    ग़ज़ल पसन्द आई .बहुत-बहुत शुक्रिया
    सादर
    आनन्द.पाठक

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