मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

ग़ज़ल 019 : बेख़ुदी आ गई लेकर

ग़ज़ल  019: बेखु़दी आ गई लेकर कहाँ.......

बेखु़दी आ गई लेकर कहाँ ऐ यार मुझे ?
कर गई अपनी हक़ीक़त से ख़बरदार मुझे

ख़ूब कटती है जो मिल बैठे हैं दीवाने दो
उसको शमशीर मिली ,जुर्रत-ए-इज़हार मुझे

तेरी महफ़िल की फ़ुसूँ-साज़ियाँ अल्लाह!अल्लाह !
खेंच कर ले गई फिर लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे

सुब्ह-ए-उम्मीद है आइना-ए-शाम-ए-हसरत
आह अच्छे नज़र आते नहीं आसार मुझे !

मैं दिल-ओ-जान से इस हुस्न-ए-अता के क़ुर्बान
जल्वा-ए-हुस्न उसे ,हसरत-ए-दीदार मुझे

अल-अमान अल-हफ़ीज़ अपनों की करम-फ़र्मायी
बन गई राहत-ए-जां तोहमत-ए-अग़्यार मुझे

एक तस्वीर के दो रुख़ हैं ब-फ़ैज़-ए-ईमान
तवाफ़-ए-क़ाबा हो कि वो हल्क़-ए-ज़ुन्नार मुझे

मैं ज़माने से ख़फ़ा ,दुनिया है मुझ से नालां
इम्तिहां हो गई ये फ़ितरत-ए-ख़ुद्दार मुझे

साग़र-ए-मय ना सही दुर्द-ए-तहे-जाम सही
तिश्ना लब यूँ तो न रख साक़ी-ए-ख़ुश्कार मुझे!

मंज़िल-ए-दर्द में वो गुज़री है मुझ पर ’सरवर’
अब कोई मरहला लगता नहीं दुश्वार मुझे

-सरवर
फ़ुसूँ साजियाँ =जादू/मायाजाल
तोहमत-ए-अग़्यार =दुश्मनों के आरोप
लज़्ज़त-ए-आज़ार = तकलीफ़ के मज़े
तवाफ़-ए-काबा =काबा की परिक्रमा
दुर्द-ए-तहे-जाम = तलछट में बची शराब
मरहला =मंज़िल

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6 टिप्‍पणियां:

  1. आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।

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  2. अच्छी ग़ज़लें हैं. Language थोड़ी मुश्किल है.

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  3. बेहतरीन ग़ज़लें हैं .... शुक्रिया !

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  4. अच्छी ग़ज़लें हैं. Language थोड़ी मुश्किल है.

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  5. ज़ीस्त की सारी करवटें पल में सिमट के रह गईं
    सदियों का तर्जुमां तो था लम्हा वो इन्तिज़ार का

    मैं ज़माने से ख़फ़ा ,दुनिया है मुझ से नालां
    इम्तिहां हो गई ये फ़ितरत-ए-ख़ुद्दार मुझे

    ऐसे पुर-कशिश शेर कह पाना
    किसी उस्ताद-ए-मुहतरम के बस ही की बात है
    सर्वर साहब की शाईरी में ज़िन्दगी के अलग-अलग
    रंगों से रु-ब-रु होने का मौक़ा मिलता है .

    aapka bahut bahut shukriyaa

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  6. मोहतरम जनाब संजय जी/राजीव जी/अमिताभ जी/आलोक मोहन जी/मुफ़लिस जी
    आदाब.आलिम जनाब "सरवर" साहेब की इज्ज़त अफ़्ज़ाई के लिए आप लोगों का बहुत-बहुत शुक्रिया
    चन्द अहलेकारीं से हम भी इत्तिफ़ाक़ रखते हैं कि गज़ल की ज़ुबान कहीं कहीं मुश्किल हो गई है.इन्तख़ाब-ए-गज़ल में आइन्दा मैं इसका ख़याल रखूंगा.
    मुख़्लिस
    आनन्द

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